जब भी आत्मकथा लिखने का मन हो तब समझना की बुढ़ापे की शुरुवात हो गई हैं | जीवन आगे जीने के लिए कम लगने लगता हैं , और बीता हुआ बहुत याद आने लगता है | अपने जीवन में घटित हुई घटनाओ के बारे में दूसरो को कहने में अच्छा लगता है, लेकिन दुसरे लोगो के पास अपनी बाते सुनने का समय नहीं होता | वे सुनने का इन्तजार भी नहीं करते | क्योकि इनके नए जीवन में नई नई घटनाये घट रही होती है, और फिर अपने पास अपनी ही पुरानी बातो के अलावा, जिन्हें कई बार दुहरा चुके होते है, या सम्हाल - सम्हाल के याद करके कहने के सिवा अन्य कोई रास्ता भी नहीं होता, और तभी आत्मकथा लिखने की इच्छा होती है|
(२) परन्तु आत्मकथा बहुत जल्दी याने कम उम्र में लिखने जैसी बात भी नहीं | इसमें अपने साथ जो घटित हुआ, उसके बनिस्बत जो घटित नहीं हुआ, उसके विषय में कहना बहुत बाकी रह जाता है| और, शायद जो घटित नहीं हुआ है, वही सच्ची जिन्दगी हो | और जो जिन्दगी आपने खुली आँख से देखकर अब तक बिताई है, जो एक सपने की भांति बीत गई है, वह भविष्य में होने वाले अघटित के एकदम विपरीत हो|
(३) मैं यह हमेशा ध्यान रखता हूँ की जीवन जैसा प्रारंभ होता है वैसा उसका अंत नहीं होता| अंत सदा से अनिर्णीत है | अंत सदा ही अदृश्य है | अक्सर ही हम जो सोचकर चलते है, वैसा नहीं होता | जो हम मानकर चलते है, वह नहीं होता | जीवन एक अज्ञात यात्रा है | इसलिए जीवन के प्रारंभिक क्षणो में, किसी भी कार्य या घटना की शुरुवात मे जो सोचा जाता है, वह अंतिम परिणाम नहीं बनता | हम अपने भाग्य या भविष्य के निर्माण की प्रक्रिया में लगातार कार्यशील हो सकते है, लेकिन अपने भाग्य के निर्णायक नहीं हो पाते | भविष्य कुछ और ही होता है अनचाहा, अनसोचा, अपनी धारणा के एकदम विपरीत | और उसे मजबूरन भुगतना ही पड़ता है अन्य कोई चारा नहीं |
(४) धार्मिक आस्था से सराबोर, मंदिरो से घिरे ,पवित्र नदी के किनारे, एक छोटे से शांत कसबे की मिटटी की गलियो में, चिमनी के उजाले में, कच्चे मिटटी- कवेलू के घर में हुए अपने जन्म को भगवान की कृपा समझा | बचपन के दृश्य बिना कारण बताएं जब तब स्मृति पटल पर छा जाते है, पीछे मंदिर में घंटाल और शंख बजाने से लेकर धर्मशाला की परसालो में दोड़ने की यादे अब भी जेहन में गूंजती रहती है | दूसरी और वक्त की करवट से महानगर में रहने पर अत्याधुनिक फैशन, भाग्दोड़,ग्लेमर, टी वी की चमक-चकाचोन्ध देखकर मन ये कहता है की मैं थोडा बाद में जन्म लेता ....| २१ वी सदी का आनंद और अब जब की सब कुछ हांसिल है, जो जी में आवे वो कर सकते है, और जब दुनिया मुठ्ठी मे है , तब , तब आत्मकथा लिखने की इच्छा होती है, कितना विरोधाभास |
(५) रात के समय जब सारा जग सो गया होता है, बाजू में सोये हुए की सांसे तेज रफ़्तार से चल रही हो, सन्नाटे में सोई हुई यादें जाग जाती है, एकाएक आंखो में पूरी आत्मकथा, जीवनी, फिल्म की मानिंद स्मृति पटल पर चलने लगती है | सात बाश्शा की गली के, कवेलू की खपरेल के, पिली मिटटी-गोबर और लीद के लिपेपुते घर की याद आ जाती है| घर के निचे घासलेट की दुकान होने से उसकी गंध हवा में मिश्रित होकर मष्तिष्क में छा जाती है | मन की यादे कभी पुरानी नहीं होती, बासी नहीं होती | जिनकी गोद में बैठ कर, खेल कर, देख कर बड़े हुए वे सभी जीवंत हो जाते है | भले ही अब वो इस संसार में नहीं है, लेकिन मन नहीं मानता, स्मृति में अभी भी वो जीवंत है | और इसी बीच कब आँख भींग कर नींद के आगोश में समा जाती है, पता ही नहीं चलता|
(६) आज कल में ढल गया, दिन हुआ तमाम, तू भी सोजा, सो गई , दर्द भरी शाम|
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