तीन गाँव- तीन घर
मैदम--औ--मैदम---मैदम
पतली सी तेज आवाज नीचे पीछे बाड़े से कान के परदे को छेदती हुई सुनाई दी । मैं पहली मंजिल पर अपने कमरे मे पढ़ रहा था । खिड़की से झांक कर देखा, सफेद बाल, थुल-थुल काया, ढी़ले-ढा़ले पुराने से सलवार कमीज पहने हुए महिला को देखकर समझ गया कि स्कूल की कामवाली बाई होगी और स्कूल की बडी़ मैडम ने, मेरी पत्नी को जो वहाँ शिक्षिका है, बुलाया है । पास ही रसोईघर की खिड़की से मेरी पत्नी ने नीचे झांक कर कहा - ठीक है । आती हूँ चाची । उसके ऐसा कहने तक ही चाची ने बिना खिड़की की और उपर देखे चार बार और मैदम-मैदम की तीखी आवाज लगादी और नीचे बाड़े में जमीन पर बैठ गई ।
चूँकि मुझे ज्यादा चिल्लाचोट, शोरगुल पसंद नही है यह जानकर पत्नी ने खिड़की से हाथ का इशारा बताकर कि अब आवाज मत लगाना, अपने आने का कहा और तुरंत काम निपटाकर खाना मेजपर रख दिया और मुझसे स्कूल जाने का कह कर निकल गई ।
शाम को बताया मेरे स्कूल की नई काम वाली बाई है, अभी एक महीना हुआ है, नौकरी पर रखे हुए । वृद्घ है, नाम तो गुलबानो है पर सब चाची कहते है । एक बेटा-बहू है, पोता है । यूपी में कही रहता है । कहता है- अम्मी, यही रहो, परन्तु बहू से पटती नही है । बुढा़पे की वजह से काम नही होता है तो बहू झगडती रहती है और हमेशा नीचा दिखाती रहती है । मनुष्य एकबार सुख ओैर आनंद के क्षणों को तो भूल सकता है परन्तु दुःख के और विशेषरुप से अपमान के क्षणों को तो वह प्रयत्न करने पर भी भुला नही पाता । अपमानित मन का अथ है- निरंतर तड़पन, कटु स्मृति, आह और विवशता । यहां आसपास कोई रिश्तेदार नही है, चाल के एक टीनशेड वाले कमरे मे रहती है । कहती है - स्वाभिमान से अब तक जीवन गुजारा है, काम करती हूँ, जो भी मिलता है उसमे खुश रहती हूँ । पति है नही,उम्र अधेड़ावस्था से वृद्घावस्था कि ओर खिसकती जारही है,दिखाई भी कम देता है, पता नही कितने दिन काम करेगी, लेकिन मुझसे बहुत खुश है । हमेशा मुझे आशीवाद देती रहती है । कहती है- मैदम आपके तीन लड़के है, आपके तीन गाँव में तीन घर बसेंगे, आप तीनों गाँवों में राज करेंगी, आप बहुत भागवान है, मालिक आपको खुश रखे ।
चाची का ज्यादा बातूनी स्वभाव होने से स्कूल का स्टाफ भी उसे ज्यादा महत्व नही देता और कोई तो उससे ढ़ंग से बात भी नही करते । मुझसे कहती आज बड़ी मैडम ने डांट दिया, आज बड़े सर ने जोर से बोला और झट रोने लग जाती । मैं कहती ठीक है चाची मैं उनसे कह दूंगी, सब ठीक हो जाएगा । मैं जानती हूँ कि उसे झूटी दिलासा दे रही हूँ और बड़ी मैडम से,बड़े सर से कहूंगी भी नही । लेकिन मेरी सांत्वना से उसे बड़ी हिम्मत मिलती और बच्चें जैसी खुश होकर चुप हो जाती । सच कहते है बच्चें और बूढ़े एक समान होते है । जब भी वो कहती कि आपके तीन गाँव बसेंगे, आप तीन गाँवों पर राज करेंगी, मैं समझ जाती कि कुछ बात जरुर है, अच्छा बताओं क्या बात है ? मुझे बीस रुपए चाहिए किराना सामान लाना है, जैसे ही तनखा मिलेगी दे दूंगी । मुझे मालूम है जरुरत पडने पर हमेशा दस-बीस रुपए ले जाती है और वापस भी कर देती है ।
एक दिन मैं कुछ जल्दी स्कूल पहुँची तो देखा कि बच्चें कुछ ढूंढ़ रहे है और चाची एक तरफ खड़ी होकर रो रही है । पूछा क्या बात है ? बोली मेरे पाँच रुपए कहीं खोगए है । स्कूल मे झाडू लगाते या टाटपट्टी बिछाते समय कहीं गिर गए है । उसने अपने दुपट्टे का फटा हुअा कोना बताते हुए कहा इसी में एक रुमाल में छोटीसी घड़ी करके बांधा था । सभी जगह देखे नहीं मिले,उसने रोते-रोते कहा । मैंने कहा मैं ढूंढती हूँ । तभी स्कूल शुरु होने की घंटी बज गई । अतः उसका रोना बंद कराने के लिए दूसरे कमरे में जाकर अपने बटुए से पाँच का एक नोट निकाल कर छोटी घड़ी करके उसे देते हुए बोली,लो चाची ये मिल गया । यहॉ कोने में टाटपट्टी के नीचे पड़ा था । बहुत खुश होकर आँसू पौंछते बोली, मैदम आपके तीन गाँव बसेंगे ।मालिक तुम्हारा भला करेंगे । आप राज करेंगी । ऐसा कहना अब उसका तकिया -कलाम बन गया था ।
जीवन में कुछ चीजें प्रेम एवं विश्वास के नाजुक धागों से बँधी रहने पर ही संगठित रहती है । लेकिन जब उन्हें अहंकार एवं
अधिकाररुपी जंजीरों से बाँधने का प्रयत्न किया जाता है तब वे बिखर जाती है । मेरी पत्नी चाची के तीन गाँव तीन घर के आशीरवाद की मुझसे अक्सर खुश होकर चरचा किया करती । मैं कहता मेरी समझ में नही आता है कि ये आशीरवाद है या कुछ और । क्यों ? गंभीर स्वर में उसने पूछा । मैंने कहा कि मैं संयुक्त परिवार में जन्मा और बडा हुआ । भरे पूरे परिवार का आनंद की कुछ और है हमेशा चहल-पहल,हल्ला-गुल्ला, बेफिक्री । तीन गाँव में तीन घर की बजाय एक गाँव में एक ही घर । यहां अपना इतना बड़ा घर है सिक्स बी.एच. के. प्लस बेडमिंटन के मैदान जैसा बाड़ा । तीनों बेटे-बहुएँ सभी साथ-साथ रहेंगे । पोते-पोतियों को बाड़े में खेलता देखूंगा और उनके साथ खेलूंगा भी सही । और मैं स्वप्नलोक के इन्द्रजाल में शेखचिल्ली की तरह खोगया । बचपन के जीवन की पुनरावृति्,फिर होगी कल्पना कितनी मधुर लगती है । मुझे आसमान से जमीन पर उतारते हुए हँसते हुए बोली - वैसे भी मन के लड्डू भगतजी की दुकान के बदले ज्यादा ही मीठे होते है । अच्छाई-बुराई, गुण-अवगुण तो संयुक्त और एकाकी परिवारों में समानरुप से होते ही है । असली बात है अपने को उन परिसि्थ्तियों से तालमेल बिठाकर खुश रहना । इतनी उच्चशिक्षा के बाद अपने इस छोटे से शहर में उनके लायक नौकरी-धंधा कहा मिलेगा ? देखना वो तो महानगरों में ही रहेंगे और मौका मिला तो विदेश भी जा सकते हेै । उसकी यह भविष्यवाणी सुनकर मैं अज्ञात भवितव्य की शंका-कुशंकाओं के भँवरजाल में फँसकर चुप रह गया । सत्य कभी-कभी कल्पना से भी अधिक भयानक हो सकता है ।
◊ ◊ ◊ ◊ ◊ ◊ ◊
दिन , महिने और साल रेल के इंजिन,डिब्बें और ब्रेकयान की तरह कपलिंग से एक दूसरे से जुड़े हुए समय की पटरी पर तेज गति से भागते रहे । मेरे तीनों लड़के पढ़लिखकर उच्चशिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरी में लग गए अपने पैरों पर खड़े होगए तीनों तीन अलग-अलग प्रदेशों के महानगरों में रहने लगे उनकी शादी होगई बच्चें हो गए और चाची के कथनानुसार मैदम के तीन गाँव में तीन घर बस गए ।
एक ढ़रे पर चलती हुई जिन्दगी अगर अचानक किसी ऐसी जगह पहुँच जाए, जहाँ से सिफ रास्ता ही न बदलना हो बल्कि सवारी भी बदलनी पड़े तो एकबार तो हाथ-पाँव ढ़ीले पड़ ही जाएंगे । लेकिन कभी-कभी कुछ अप्रत्याशित घटित होने पर आदमी जिस प्रकार व्यवहार करता है,वही उसके आत्मबल,बुद्घी,विवेक की सच्ची परीक्षा होती है शायद उसके भविष्य की भी । बच्चों को जरुरत थी एवं अपनी कश्मकशपूण परवरिश को जानते हुए उन्होंने कहा -आप दोनों अब नौकरी छोड़ दो,हमारे साथ रहो, बड़े-बड़े शहर देखो,घूमो-फिरो, रिटायरमेंट लाईफ का आनंद उठाओं । जब भी जी चाहे अपने पैत्रक घर आजाना । उन्होंने आसानी से कह तो दिया लेकिन यह भी सच है कि जब किसी पौंधे को अपनी जमीन अपने वातावरण से हटाकर कहीं दूर ले जाया जाता है, तो स्वाभाविक है कि वह कुछ मुर्र्झा जाता है । लेकिन यदि नई मिट्टी ज्यादा उपजाऊ हुई तथा उचित खाद-पानी,जलवायु,देखभाल से वह लहलहा भी उठता है । किसी कवि की कितनी सुंदर पंक्तियॉ है-
जीवन में दोनों आते है, मिट्टी के पल, सोने के क्षण । जीवन से दोनों जाते है, पाने के पल, खोने के क्षण ॥
हम जिस क्षण में जो करते है, हम बाध्य वही है करने को । हँसने का क्षण पाकर हँसते,रोते है पा रोने का क्षण ॥
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्र्जुन से यह नही कहा कि ईश्वर में विश्वास करो, यह कहा कि अपने में विश्वास करो, आत्मवान भव् । यही भगवान बुद्घ ने कहा है - अप्पदीपों भव् अपने दीपक स्वयं बनों । खुद ही अनुभव प्राप्त करो,उन्हें जीवन में उतारों,परीक्षा करो,प्रयोग करो । उधार की सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास मत करो । इस संसार में जो जीवन को स्वीकार करेगा उसे जीवन की अनजानी एवं अचानक आयी परिसिथतियों का भी साहस से सामना करना ही होगा,उसके अलावा कोई चारा नहीं । जिसे हमारे बाप-दादा-परदादा सब भगवान की इच्छा है, परमात्मा की मरजी कहते थे उसे हम प्रारब्ध,किस्मत,होनी-अनहोनी कुछ भी नाम दे उस उपरवाले परमपिता परमात्मा की असीम शक्तिशाली सत्ता से इंकार नही किया जा सकता । इस द्वैत जीवन का मूल सिद्घांत ही है- उजाले के साथ अंधेरा, सुख के साथ दुःख, धूप के साथ छाया, हँसी के साथ आँसू, खुशी के साथ गम और जन्म के साथ मृत्यु यानि की सब के सब अपने विरोधी आधार पर खड़े रहते है,यही शाश्वत सत्य है ।
पत्नी ने विद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । मैंने भी नौकरी छोड़ दी । तीन शहरों में तो एक साथ रहा नही जा सकता है न, इसलिए एक बेटे के साथ रहने लगे । बड़ा शहर, भीड़-भाड़, शोर-शराबा, चमक-चकाचौंध सबकुछ नया-नया । पुराने परिवेश से कटकर नये परिवेश में जाने से सुक्ष्म मानसिक परिवतन भी आया । पारम्परिक धामिक शहर की जीवनशैली जिससे हटना भी असम्भव सा जान पड़ता था, से नये पड़ौसी ,नई भाषा,महानगरीय रहन-सहन वातावरण से तालमेल बिठाने में कुछ समय अवश्य लगा । रिश्तेदार,मित्रमंडली छूट गई, अकेलेपन का एहसास कुछ दिनों तक रहा । बचपन जिस माटी पर लौटता है लड़कपन जिस धूल में खेलता है,वह माटी और उसकी गंध व्यक्तित्व में कुछ इस तरह रच-बस जाती है कि उससे अलग होना या भुला देना मुश्किल होता है । दूसरा अनुभव यह भी हुआ कि वक्त तकलीफ का सबसे बड़ा मरहम है, महानगरों का एकाकीपन व अजनबीपन भी एकांतता एवं सजृन में सहायक होता है और कभी-कभी खुशी भी प्रदान करता है, क्योंकि मन हमेशा आजादी चाहता है । जीवन की आकस्मिक घटनाए ही वास्तव में जीवन को दिशा देती है ।
मेरे मित्र ने मुझसे कहा - बेटी की बिदाई का दरद बहुत होता है जिसे सिफ उसके माता-पिता ही समझ सकते है । जब बेटी विवाह कर बिदा होती है तो उनका दिल भारी हो जाता है, आँखों से आँसू सूखते नहीं । जन्म से लेकर बिदाई तक का जीवन चलचित्र की तरह सामने दिखाई देने लगता है । तुम नहीं समझ सकते । मैंने कहा-क्यों ? ऐसी क्या बात है । क्योंकि तुम्हारे तो बेटे ही बेटे है । मैंने कहा -बात कुछ जमी नही । एक बात और, लड़के तीन हो, पाँच हो या एक कोई फरक नही पड़ता । मुझे तो बेटे-बेटी की बिदाई में कुछ फरक नजर नही आता । और ये तो अपना- अपना देखने का दृष्टिकोण है,अपनी-अपनी सोच समझ है, बुद्घी है । अरे, बेटी तो दूसरे के घर की अमानत है ही, उसे जन्म से ही पराया मानते है । कारण कि ये तो विवाह करके दूसरे के घर जायगी ही और अपना अलग घर बसाएगी ही । जिसे हम जन्म से ही दूसरे की धरोहर के रुप में देखते है तो दिल के कोने में एक परायेपन की बुनियाद के साथ ही मकान की तामीर शुरु हो जाती है और बिदाई तक एक मजबूत इमारत बन कर तैयार हो जाती है । इसी कारण हिम्मत से हम उसे बिदा भी कर देते है । और यह भी सच है कि बेटी की उम्र बढ़ने के साथ-साथ शादी में दहेज देने के लिए आभूषण, कपड़े, सामान जुटाने की प्रक्रिया भी चिंता के साथ-साथ चलती रहती है ।
इसके विपरीत बेटे है, जिनके लिए मन में धारणा ही अलग है कि जो पराये घर नही जाएंगे, बहू लेकर आएंगे, सुख दुःख मेें साथ रहेंगे, साथ रखेंगे, धीरे-धीरे परिवार बढ़ता ही जाएगा । ऐसी स्वगीय सुख की मीठी-मीठी कल्पनाओं,आकांक्षाओं में मन उड़ान भरने लगता है । कि अब बड़ी उमर में चिंता की कोई बात नहीं । अपने सौ दिन अच्छी तरह से पूरे हो जाएंगे । एक तरह की सुरक्षा का आवरण हृदय पर हमेशा चढ़ा रहता है, कि ,तेरा ख्याल जागेगा,सोया करेंगे हम । बेटी से तो जीवनभर साथ रहने की आशा नही कि जा सकती जबकि बेटो से अंत तक साथ रहने की उम्मीद पर ही माँ- बाप जिन्दा रहते है । और जब वो ही बेटे, जाे अपने है, पराये नही, एक दिन तीन बड़े शहरों में अलग अलग अपना घर बसा लेते है, उसकी पीड़ा शायद बेटी की बिदाई से ज्यादा ही होगी, इस यक्ष प्रश्न का उत्तर एक अनसुलझी पहेली या फिर उन बेटों के भुक्तभोगी माँ-बाप ही समझ सकते है, जिनके सुखद सपनों को कच्ची नींद में झकझोर कर तोड़ दिया गया हो । बेटों की जुदाई की तड़पन एवं याद में आँखे जब तब अपने पलकों के प्यालें अश्कों से भर-भर कर गालों पर ढ़ोलते रहते है । आशीरवाद सुनकर मेरी पत्नी हमेशा खुश हो जाती थी, लेकिन मैं आज तक समझ नहीं पाया कि चाची ने तीन गाँव तीन घर का वरदान दिया था या- -शाप ???
जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए, अब तुमने कितनी दूर ठिकाने बना लिए----
हरिनारायण दीसावाल
मुंबई १८-९-२०१३
मैदम--औ--मैदम---मैदम
पतली सी तेज आवाज नीचे पीछे बाड़े से कान के परदे को छेदती हुई सुनाई दी । मैं पहली मंजिल पर अपने कमरे मे पढ़ रहा था । खिड़की से झांक कर देखा, सफेद बाल, थुल-थुल काया, ढी़ले-ढा़ले पुराने से सलवार कमीज पहने हुए महिला को देखकर समझ गया कि स्कूल की कामवाली बाई होगी और स्कूल की बडी़ मैडम ने, मेरी पत्नी को जो वहाँ शिक्षिका है, बुलाया है । पास ही रसोईघर की खिड़की से मेरी पत्नी ने नीचे झांक कर कहा - ठीक है । आती हूँ चाची । उसके ऐसा कहने तक ही चाची ने बिना खिड़की की और उपर देखे चार बार और मैदम-मैदम की तीखी आवाज लगादी और नीचे बाड़े में जमीन पर बैठ गई ।
चूँकि मुझे ज्यादा चिल्लाचोट, शोरगुल पसंद नही है यह जानकर पत्नी ने खिड़की से हाथ का इशारा बताकर कि अब आवाज मत लगाना, अपने आने का कहा और तुरंत काम निपटाकर खाना मेजपर रख दिया और मुझसे स्कूल जाने का कह कर निकल गई ।
शाम को बताया मेरे स्कूल की नई काम वाली बाई है, अभी एक महीना हुआ है, नौकरी पर रखे हुए । वृद्घ है, नाम तो गुलबानो है पर सब चाची कहते है । एक बेटा-बहू है, पोता है । यूपी में कही रहता है । कहता है- अम्मी, यही रहो, परन्तु बहू से पटती नही है । बुढा़पे की वजह से काम नही होता है तो बहू झगडती रहती है और हमेशा नीचा दिखाती रहती है । मनुष्य एकबार सुख ओैर आनंद के क्षणों को तो भूल सकता है परन्तु दुःख के और विशेषरुप से अपमान के क्षणों को तो वह प्रयत्न करने पर भी भुला नही पाता । अपमानित मन का अथ है- निरंतर तड़पन, कटु स्मृति, आह और विवशता । यहां आसपास कोई रिश्तेदार नही है, चाल के एक टीनशेड वाले कमरे मे रहती है । कहती है - स्वाभिमान से अब तक जीवन गुजारा है, काम करती हूँ, जो भी मिलता है उसमे खुश रहती हूँ । पति है नही,उम्र अधेड़ावस्था से वृद्घावस्था कि ओर खिसकती जारही है,दिखाई भी कम देता है, पता नही कितने दिन काम करेगी, लेकिन मुझसे बहुत खुश है । हमेशा मुझे आशीवाद देती रहती है । कहती है- मैदम आपके तीन लड़के है, आपके तीन गाँव में तीन घर बसेंगे, आप तीनों गाँवों में राज करेंगी, आप बहुत भागवान है, मालिक आपको खुश रखे ।
चाची का ज्यादा बातूनी स्वभाव होने से स्कूल का स्टाफ भी उसे ज्यादा महत्व नही देता और कोई तो उससे ढ़ंग से बात भी नही करते । मुझसे कहती आज बड़ी मैडम ने डांट दिया, आज बड़े सर ने जोर से बोला और झट रोने लग जाती । मैं कहती ठीक है चाची मैं उनसे कह दूंगी, सब ठीक हो जाएगा । मैं जानती हूँ कि उसे झूटी दिलासा दे रही हूँ और बड़ी मैडम से,बड़े सर से कहूंगी भी नही । लेकिन मेरी सांत्वना से उसे बड़ी हिम्मत मिलती और बच्चें जैसी खुश होकर चुप हो जाती । सच कहते है बच्चें और बूढ़े एक समान होते है । जब भी वो कहती कि आपके तीन गाँव बसेंगे, आप तीन गाँवों पर राज करेंगी, मैं समझ जाती कि कुछ बात जरुर है, अच्छा बताओं क्या बात है ? मुझे बीस रुपए चाहिए किराना सामान लाना है, जैसे ही तनखा मिलेगी दे दूंगी । मुझे मालूम है जरुरत पडने पर हमेशा दस-बीस रुपए ले जाती है और वापस भी कर देती है ।
एक दिन मैं कुछ जल्दी स्कूल पहुँची तो देखा कि बच्चें कुछ ढूंढ़ रहे है और चाची एक तरफ खड़ी होकर रो रही है । पूछा क्या बात है ? बोली मेरे पाँच रुपए कहीं खोगए है । स्कूल मे झाडू लगाते या टाटपट्टी बिछाते समय कहीं गिर गए है । उसने अपने दुपट्टे का फटा हुअा कोना बताते हुए कहा इसी में एक रुमाल में छोटीसी घड़ी करके बांधा था । सभी जगह देखे नहीं मिले,उसने रोते-रोते कहा । मैंने कहा मैं ढूंढती हूँ । तभी स्कूल शुरु होने की घंटी बज गई । अतः उसका रोना बंद कराने के लिए दूसरे कमरे में जाकर अपने बटुए से पाँच का एक नोट निकाल कर छोटी घड़ी करके उसे देते हुए बोली,लो चाची ये मिल गया । यहॉ कोने में टाटपट्टी के नीचे पड़ा था । बहुत खुश होकर आँसू पौंछते बोली, मैदम आपके तीन गाँव बसेंगे ।मालिक तुम्हारा भला करेंगे । आप राज करेंगी । ऐसा कहना अब उसका तकिया -कलाम बन गया था ।
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जीवन में कुछ चीजें प्रेम एवं विश्वास के नाजुक धागों से बँधी रहने पर ही संगठित रहती है । लेकिन जब उन्हें अहंकार एवं
अधिकाररुपी जंजीरों से बाँधने का प्रयत्न किया जाता है तब वे बिखर जाती है । मेरी पत्नी चाची के तीन गाँव तीन घर के आशीरवाद की मुझसे अक्सर खुश होकर चरचा किया करती । मैं कहता मेरी समझ में नही आता है कि ये आशीरवाद है या कुछ और । क्यों ? गंभीर स्वर में उसने पूछा । मैंने कहा कि मैं संयुक्त परिवार में जन्मा और बडा हुआ । भरे पूरे परिवार का आनंद की कुछ और है हमेशा चहल-पहल,हल्ला-गुल्ला, बेफिक्री । तीन गाँव में तीन घर की बजाय एक गाँव में एक ही घर । यहां अपना इतना बड़ा घर है सिक्स बी.एच. के. प्लस बेडमिंटन के मैदान जैसा बाड़ा । तीनों बेटे-बहुएँ सभी साथ-साथ रहेंगे । पोते-पोतियों को बाड़े में खेलता देखूंगा और उनके साथ खेलूंगा भी सही । और मैं स्वप्नलोक के इन्द्रजाल में शेखचिल्ली की तरह खोगया । बचपन के जीवन की पुनरावृति्,फिर होगी कल्पना कितनी मधुर लगती है । मुझे आसमान से जमीन पर उतारते हुए हँसते हुए बोली - वैसे भी मन के लड्डू भगतजी की दुकान के बदले ज्यादा ही मीठे होते है । अच्छाई-बुराई, गुण-अवगुण तो संयुक्त और एकाकी परिवारों में समानरुप से होते ही है । असली बात है अपने को उन परिसि्थ्तियों से तालमेल बिठाकर खुश रहना । इतनी उच्चशिक्षा के बाद अपने इस छोटे से शहर में उनके लायक नौकरी-धंधा कहा मिलेगा ? देखना वो तो महानगरों में ही रहेंगे और मौका मिला तो विदेश भी जा सकते हेै । उसकी यह भविष्यवाणी सुनकर मैं अज्ञात भवितव्य की शंका-कुशंकाओं के भँवरजाल में फँसकर चुप रह गया । सत्य कभी-कभी कल्पना से भी अधिक भयानक हो सकता है ।
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दिन , महिने और साल रेल के इंजिन,डिब्बें और ब्रेकयान की तरह कपलिंग से एक दूसरे से जुड़े हुए समय की पटरी पर तेज गति से भागते रहे । मेरे तीनों लड़के पढ़लिखकर उच्चशिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरी में लग गए अपने पैरों पर खड़े होगए तीनों तीन अलग-अलग प्रदेशों के महानगरों में रहने लगे उनकी शादी होगई बच्चें हो गए और चाची के कथनानुसार मैदम के तीन गाँव में तीन घर बस गए ।
एक ढ़रे पर चलती हुई जिन्दगी अगर अचानक किसी ऐसी जगह पहुँच जाए, जहाँ से सिफ रास्ता ही न बदलना हो बल्कि सवारी भी बदलनी पड़े तो एकबार तो हाथ-पाँव ढ़ीले पड़ ही जाएंगे । लेकिन कभी-कभी कुछ अप्रत्याशित घटित होने पर आदमी जिस प्रकार व्यवहार करता है,वही उसके आत्मबल,बुद्घी,विवेक की सच्ची परीक्षा होती है शायद उसके भविष्य की भी । बच्चों को जरुरत थी एवं अपनी कश्मकशपूण परवरिश को जानते हुए उन्होंने कहा -आप दोनों अब नौकरी छोड़ दो,हमारे साथ रहो, बड़े-बड़े शहर देखो,घूमो-फिरो, रिटायरमेंट लाईफ का आनंद उठाओं । जब भी जी चाहे अपने पैत्रक घर आजाना । उन्होंने आसानी से कह तो दिया लेकिन यह भी सच है कि जब किसी पौंधे को अपनी जमीन अपने वातावरण से हटाकर कहीं दूर ले जाया जाता है, तो स्वाभाविक है कि वह कुछ मुर्र्झा जाता है । लेकिन यदि नई मिट्टी ज्यादा उपजाऊ हुई तथा उचित खाद-पानी,जलवायु,देखभाल से वह लहलहा भी उठता है । किसी कवि की कितनी सुंदर पंक्तियॉ है-
जीवन में दोनों आते है, मिट्टी के पल, सोने के क्षण । जीवन से दोनों जाते है, पाने के पल, खोने के क्षण ॥
हम जिस क्षण में जो करते है, हम बाध्य वही है करने को । हँसने का क्षण पाकर हँसते,रोते है पा रोने का क्षण ॥
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्र्जुन से यह नही कहा कि ईश्वर में विश्वास करो, यह कहा कि अपने में विश्वास करो, आत्मवान भव् । यही भगवान बुद्घ ने कहा है - अप्पदीपों भव् अपने दीपक स्वयं बनों । खुद ही अनुभव प्राप्त करो,उन्हें जीवन में उतारों,परीक्षा करो,प्रयोग करो । उधार की सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास मत करो । इस संसार में जो जीवन को स्वीकार करेगा उसे जीवन की अनजानी एवं अचानक आयी परिसिथतियों का भी साहस से सामना करना ही होगा,उसके अलावा कोई चारा नहीं । जिसे हमारे बाप-दादा-परदादा सब भगवान की इच्छा है, परमात्मा की मरजी कहते थे उसे हम प्रारब्ध,किस्मत,होनी-अनहोनी कुछ भी नाम दे उस उपरवाले परमपिता परमात्मा की असीम शक्तिशाली सत्ता से इंकार नही किया जा सकता । इस द्वैत जीवन का मूल सिद्घांत ही है- उजाले के साथ अंधेरा, सुख के साथ दुःख, धूप के साथ छाया, हँसी के साथ आँसू, खुशी के साथ गम और जन्म के साथ मृत्यु यानि की सब के सब अपने विरोधी आधार पर खड़े रहते है,यही शाश्वत सत्य है ।
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पत्नी ने विद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । मैंने भी नौकरी छोड़ दी । तीन शहरों में तो एक साथ रहा नही जा सकता है न, इसलिए एक बेटे के साथ रहने लगे । बड़ा शहर, भीड़-भाड़, शोर-शराबा, चमक-चकाचौंध सबकुछ नया-नया । पुराने परिवेश से कटकर नये परिवेश में जाने से सुक्ष्म मानसिक परिवतन भी आया । पारम्परिक धामिक शहर की जीवनशैली जिससे हटना भी असम्भव सा जान पड़ता था, से नये पड़ौसी ,नई भाषा,महानगरीय रहन-सहन वातावरण से तालमेल बिठाने में कुछ समय अवश्य लगा । रिश्तेदार,मित्रमंडली छूट गई, अकेलेपन का एहसास कुछ दिनों तक रहा । बचपन जिस माटी पर लौटता है लड़कपन जिस धूल में खेलता है,वह माटी और उसकी गंध व्यक्तित्व में कुछ इस तरह रच-बस जाती है कि उससे अलग होना या भुला देना मुश्किल होता है । दूसरा अनुभव यह भी हुआ कि वक्त तकलीफ का सबसे बड़ा मरहम है, महानगरों का एकाकीपन व अजनबीपन भी एकांतता एवं सजृन में सहायक होता है और कभी-कभी खुशी भी प्रदान करता है, क्योंकि मन हमेशा आजादी चाहता है । जीवन की आकस्मिक घटनाए ही वास्तव में जीवन को दिशा देती है ।
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मेरे मित्र ने मुझसे कहा - बेटी की बिदाई का दरद बहुत होता है जिसे सिफ उसके माता-पिता ही समझ सकते है । जब बेटी विवाह कर बिदा होती है तो उनका दिल भारी हो जाता है, आँखों से आँसू सूखते नहीं । जन्म से लेकर बिदाई तक का जीवन चलचित्र की तरह सामने दिखाई देने लगता है । तुम नहीं समझ सकते । मैंने कहा-क्यों ? ऐसी क्या बात है । क्योंकि तुम्हारे तो बेटे ही बेटे है । मैंने कहा -बात कुछ जमी नही । एक बात और, लड़के तीन हो, पाँच हो या एक कोई फरक नही पड़ता । मुझे तो बेटे-बेटी की बिदाई में कुछ फरक नजर नही आता । और ये तो अपना- अपना देखने का दृष्टिकोण है,अपनी-अपनी सोच समझ है, बुद्घी है । अरे, बेटी तो दूसरे के घर की अमानत है ही, उसे जन्म से ही पराया मानते है । कारण कि ये तो विवाह करके दूसरे के घर जायगी ही और अपना अलग घर बसाएगी ही । जिसे हम जन्म से ही दूसरे की धरोहर के रुप में देखते है तो दिल के कोने में एक परायेपन की बुनियाद के साथ ही मकान की तामीर शुरु हो जाती है और बिदाई तक एक मजबूत इमारत बन कर तैयार हो जाती है । इसी कारण हिम्मत से हम उसे बिदा भी कर देते है । और यह भी सच है कि बेटी की उम्र बढ़ने के साथ-साथ शादी में दहेज देने के लिए आभूषण, कपड़े, सामान जुटाने की प्रक्रिया भी चिंता के साथ-साथ चलती रहती है ।
इसके विपरीत बेटे है, जिनके लिए मन में धारणा ही अलग है कि जो पराये घर नही जाएंगे, बहू लेकर आएंगे, सुख दुःख मेें साथ रहेंगे, साथ रखेंगे, धीरे-धीरे परिवार बढ़ता ही जाएगा । ऐसी स्वगीय सुख की मीठी-मीठी कल्पनाओं,आकांक्षाओं में मन उड़ान भरने लगता है । कि अब बड़ी उमर में चिंता की कोई बात नहीं । अपने सौ दिन अच्छी तरह से पूरे हो जाएंगे । एक तरह की सुरक्षा का आवरण हृदय पर हमेशा चढ़ा रहता है, कि ,तेरा ख्याल जागेगा,सोया करेंगे हम । बेटी से तो जीवनभर साथ रहने की आशा नही कि जा सकती जबकि बेटो से अंत तक साथ रहने की उम्मीद पर ही माँ- बाप जिन्दा रहते है । और जब वो ही बेटे, जाे अपने है, पराये नही, एक दिन तीन बड़े शहरों में अलग अलग अपना घर बसा लेते है, उसकी पीड़ा शायद बेटी की बिदाई से ज्यादा ही होगी, इस यक्ष प्रश्न का उत्तर एक अनसुलझी पहेली या फिर उन बेटों के भुक्तभोगी माँ-बाप ही समझ सकते है, जिनके सुखद सपनों को कच्ची नींद में झकझोर कर तोड़ दिया गया हो । बेटों की जुदाई की तड़पन एवं याद में आँखे जब तब अपने पलकों के प्यालें अश्कों से भर-भर कर गालों पर ढ़ोलते रहते है । आशीरवाद सुनकर मेरी पत्नी हमेशा खुश हो जाती थी, लेकिन मैं आज तक समझ नहीं पाया कि चाची ने तीन गाँव तीन घर का वरदान दिया था या- -शाप ???
जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए, अब तुमने कितनी दूर ठिकाने बना लिए----
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हरिनारायण दीसावाल
मुंबई १८-९-२०१३