Friday, June 19, 2015

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Tuesday, November 5, 2013

तीन गाँव - तीन घर

तीन गाँव- तीन घर

मैदम--औ--मैदम---मैदम

    पतली सी  तेज आवाज नीचे पीछे बाड़े से कान के परदे को छेदती हुई सुनाई दी  ।  मैं पहली मंजिल पर अपने कमरे मे पढ़ रहा था  ।  खिड़की से झांक कर देखा, सफेद बाल, थुल-थुल काया, ढी़ले-ढा़ले पुराने से सलवार कमीज पहने हुए महिला को देखकर समझ गया कि स्कूल की कामवाली बाई होगी और स्कूल की बडी़ मैडम ने, मेरी पत्नी को जो वहाँ शिक्षिका है, बुलाया है  ।  पास ही  रसोईघर की खिड़की  से मेरी पत्नी ने नीचे झांक कर कहा - ठीक है  । आती हूँ  चाची  । उसके ऐसा कहने तक ही चाची ने बिना खिड़की की और उपर देखे चार बार और मैदम-मैदम की तीखी आवाज लगादी और  नीचे बाड़े में जमीन पर  बैठ गई  ।

    चूँकि मुझे ज्यादा चिल्लाचोट, शोरगुल पसंद नही है यह जानकर पत्नी ने खिड़की  से हाथ का इशारा बताकर कि अब आवाज मत लगाना, अपने आने का कहा और तुरंत काम निपटाकर खाना मेजपर रख दिया  और मुझसे स्कूल जाने का कह कर निकल गई  ।
    शाम को बताया मेरे स्कूल की  नई काम वाली बाई है, अभी एक महीना हुआ है, नौकरी पर रखे हुए । वृद्घ है, नाम तो गुलबानो है पर सब चाची कहते है । एक बेटा-बहू है, पोता है । यूपी में कही रहता है  । कहता है- अम्मी, यही रहो, परन्तु बहू से पटती नही है  । बुढा़पे की वजह से काम नही होता है तो बहू झगडती रहती है और  हमेशा नीचा दिखाती रहती है । मनुष्य एकबार सुख ओैर आनंद के क्षणों को तो भूल सकता है परन्तु दुःख के और विशेषरुप से अपमान के क्षणों को तो वह प्रयत्न करने पर भी भुला नही पाता । अपमानित मन का अथ है- निरंतर तड़पन, कटु स्मृति, आह और विवशता । यहां आसपास कोई रिश्तेदार नही है, चाल के एक टीनशेड वाले कमरे मे रहती है ।  कहती है - स्वाभिमान से अब तक जीवन गुजारा है, काम करती हूँ, जो भी मिलता है उसमे खुश रहती हूँ  । पति है नही,उम्र अधेड़ावस्था से वृद्घावस्था कि ओर खिसकती जारही है,दिखाई भी कम देता है, पता नही कितने दिन काम करेगी, लेकिन मुझसे बहुत खुश है  । हमेशा मुझे आशीवाद देती रहती है  । कहती है- मैदम आपके तीन लड़के है, आपके तीन गाँव में तीन घर बसेंगे, आप तीनों गाँवों में राज करेंगी, आप बहुत भागवान है, मालिक आपको खुश रखे  ।

    चाची का ज्यादा बातूनी स्वभाव होने से स्कूल का स्टाफ भी उसे ज्यादा महत्व नही देता और कोई तो उससे ढ़ंग से बात भी नही करते ।  मुझसे कहती आज बड़ी मैडम ने डांट दिया, आज बड़े सर ने जोर से बोला और झट रोने लग जाती ।  मैं कहती ठीक है चाची मैं उनसे कह दूंगी, सब ठीक हो जाएगा ।  मैं जानती हूँ कि उसे झूटी दिलासा दे रही हूँ और बड़ी मैडम से,बड़े सर से कहूंगी भी नही । लेकिन मेरी सांत्वना से उसे बड़ी हिम्मत मिलती और बच्चें जैसी खुश होकर चुप हो जाती । सच कहते है बच्चें और बूढ़े एक समान होते है । जब भी वो कहती कि आपके तीन गाँव बसेंगे, आप तीन गाँवों पर राज करेंगी, मैं समझ जाती कि कुछ बात जरुर है,   अच्छा बताओं  क्या बात है ? मुझे बीस रुपए चाहिए किराना सामान लाना है, जैसे ही तनखा मिलेगी दे दूंगी । मुझे मालूम है जरुरत पडने पर हमेशा दस-बीस रुपए ले जाती है और वापस भी कर देती है । 

    एक दिन मैं कुछ जल्दी स्कूल पहुँची तो देखा कि बच्चें कुछ ढूंढ़ रहे है और चाची एक तरफ खड़ी होकर रो रही है । पूछा क्या बात है ? बोली मेरे पाँच रुपए कहीं खोगए है । स्कूल मे झाडू लगाते या टाटपट्टी बिछाते समय कहीं गिर गए है  । उसने अपने दुपट्टे का फटा हुअा कोना बताते हुए कहा इसी में एक रुमाल में छोटीसी घड़ी करके बांधा था । सभी जगह देखे नहीं मिले,उसने रोते-रोते कहा ।   मैंने कहा मैं ढूंढती हूँ । तभी स्कूल शुरु होने की घंटी बज गई । अतः उसका रोना बंद कराने के लिए दूसरे कमरे में जाकर अपने बटुए से पाँच का एक नोट निकाल कर छोटी घड़ी करके उसे देते हुए बोली,लो चाची ये मिल गया । यहॉ कोने में टाटपट्टी के नीचे पड़ा था । बहुत खुश होकर आँसू पौंछते बोली, मैदम आपके तीन गाँव बसेंगे ।मालिक तुम्हारा भला करेंगे । आप राज करेंगी । ऐसा कहना अब उसका तकिया -कलाम बन गया था । 

 ◊  ◊  ◊  ◊  ◊  ◊  ◊

    जीवन में कुछ चीजें प्रेम एवं विश्वास के नाजुक धागों से बँधी रहने पर ही संगठित रहती है । लेकिन जब उन्हें अहंकार एवं
अधिकाररुपी जंजीरों से बाँधने का प्रयत्न किया जाता है तब वे बिखर जाती है । मेरी पत्नी चाची के तीन गाँव तीन घर के आशीरवाद की मुझसे अक्सर खुश होकर चरचा किया करती  । मैं कहता मेरी समझ में नही आता है कि ये आशीरवाद है या कुछ और  । क्यों ? गंभीर स्वर में उसने पूछा  । मैंने कहा कि मैं संयुक्त परिवार में जन्मा और बडा हुआ  । भरे पूरे परिवार का आनंद की कुछ और है हमेशा चहल-पहल,हल्ला-गुल्ला, बेफिक्री  ।  तीन गाँव में तीन घर की बजाय एक गाँव में एक ही घर  ।  यहां अपना इतना बड़ा घर है सिक्स बी.एच. के. प्लस बेडमिंटन के मैदान  जैसा बाड़ा । तीनों बेटे-बहुएँ सभी साथ-साथ रहेंगे । पोते-पोतियों को  बाड़े में खेलता देखूंगा और उनके साथ खेलूंगा भी सही । और मैं स्वप्नलोक के इन्द्रजाल में शेखचिल्ली की तरह खोगया ।  बचपन के जीवन की पुनरावृति्,फिर होगी   कल्पना कितनी मधुर लगती है  । मुझे आसमान से जमीन पर उतारते हुए  हँसते हुए बोली - वैसे भी मन के लड्डू भगतजी की दुकान के बदले ज्यादा ही मीठे होते है  । अच्छाई-बुराई, गुण-अवगुण तो संयुक्त और एकाकी परिवारों में समानरुप से होते ही है ।  असली बात है अपने को उन परिसि्थ्तियों  से तालमेल  बिठाकर खुश रहना । इतनी उच्चशिक्षा के बाद अपने इस छोटे  से शहर में उनके लायक नौकरी-धंधा कहा   मिलेगा ?  देखना वो तो महानगरों में ही रहेंगे और मौका मिला तो विदेश भी जा सकते हेै  । उसकी यह भविष्यवाणी  सुनकर मैं अज्ञात भवितव्य की शंका-कुशंकाओं के भँवरजाल में फँसकर चुप रह गया । सत्य कभी-कभी कल्पना से भी अधिक भयानक हो सकता है ।
        
                                                           ◊  ◊  ◊  ◊  ◊  ◊  ◊

     दिन , महिने और साल  रेल के इंजिन,डिब्बें और ब्रेकयान की तरह कपलिंग से एक दूसरे से जुड़े हुए समय की  पटरी पर तेज गति से भागते रहे । मेरे तीनों लड़के पढ़लिखकर उच्चशिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरी में लग गए अपने पैरों पर खड़े होगए तीनों तीन अलग-अलग प्रदेशों के महानगरों में रहने लगे उनकी शादी होगई बच्चें हो गए और चाची के कथनानुसार मैदम के तीन गाँव में तीन घर बस गए ।   
    एक ढ़रे पर चलती हुई जिन्दगी अगर अचानक किसी ऐसी जगह पहुँच जाए, जहाँ से सिफ रास्ता ही न बदलना हो बल्कि सवारी भी बदलनी पड़े तो एकबार तो हाथ-पाँव ढ़ीले पड़ ही जाएंगे । लेकिन कभी-कभी कुछ अप्रत्याशित घटित होने पर आदमी जिस प्रकार व्यवहार करता है,वही उसके आत्मबल,बुद्घी,विवेक की सच्ची परीक्षा होती है शायद उसके भविष्य की भी । बच्चों को जरुरत थी  एवं  अपनी कश्मकशपूण परवरिश को जानते हुए उन्होंने कहा -आप दोनों अब नौकरी छोड़ दो,हमारे साथ रहो, बड़े-बड़े शहर देखो,घूमो-फिरो, रिटायरमेंट लाईफ का आनंद उठाओं  । जब भी जी चाहे अपने पैत्रक घर आजाना । उन्होंने आसानी से कह तो दिया लेकिन यह भी सच है कि जब किसी पौंधे को अपनी जमीन अपने वातावरण से हटाकर कहीं दूर ले जाया जाता है, तो स्वाभाविक है कि वह कुछ मुर्र्झा जाता है  । लेकिन यदि नई मिट्टी ज्यादा उपजाऊ हुई तथा उचित खाद-पानी,जलवायु,देखभाल से वह लहलहा भी उठता है ।  किसी कवि की कितनी सुंदर पंक्तियॉ है-

  जीवन में दोनों आते है, मिट्टी के पल, सोने के क्षण । जीवन से दोनों जाते है, पाने के पल, खोने के क्षण ॥
 हम जिस क्षण में जो करते है, हम बाध्य वही है करने को । हँसने का क्षण पाकर हँसते,रोते है पा रोने का क्षण ॥
  
    गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्र्जुन से यह नही कहा कि ईश्वर में विश्वास करो,  यह कहा कि अपने में विश्वास करो, आत्मवान भव्  । यही भगवान बुद्घ ने कहा है - अप्पदीपों भव्  अपने दीपक स्वयं बनों  । खुद ही अनुभव प्राप्त करो,उन्हें जीवन में उतारों,परीक्षा करो,प्रयोग करो  । उधार की सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास मत करो ।  इस संसार में जो जीवन को स्वीकार करेगा उसे जीवन की अनजानी एवं अचानक आयी  परिसिथतियों  का भी साहस से सामना करना ही होगा,उसके अलावा कोई चारा नहीं । जिसे हमारे बाप-दादा-परदादा सब भगवान की इच्छा है, परमात्मा की मरजी कहते थे उसे हम प्रारब्ध,किस्मत,होनी-अनहोनी कुछ भी नाम दे उस उपरवाले परमपिता परमात्मा की असीम  शक्तिशाली सत्ता से इंकार नही किया जा सकता । इस द्वैत जीवन का मूल सिद्घांत ही है- उजाले के साथ अंधेरा, सुख के साथ दुःख, धूप के साथ छाया, हँसी के साथ आँसू, खुशी के साथ गम और जन्म के साथ  मृत्यु यानि की सब के सब अपने विरोधी आधार पर खड़े रहते है,यही शाश्वत सत्य है ।

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    पत्नी ने विद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया  । मैंने भी नौकरी छोड़ दी । तीन शहरों में तो एक साथ रहा नही जा सकता है न,  इसलिए एक बेटे के साथ रहने लगे । बड़ा शहर, भीड़-भाड़, शोर-शराबा, चमक-चकाचौंध सबकुछ नया-नया । पुराने परिवेश से कटकर नये परिवेश में जाने से सुक्ष्म मानसिक परिवतन भी आया । पारम्परिक धामिक शहर की जीवनशैली जिससे हटना भी असम्भव सा जान पड़ता था, से नये पड़ौसी ,नई भाषा,महानगरीय रहन-सहन वातावरण से तालमेल बिठाने में कुछ समय अवश्य लगा । रिश्तेदार,मित्रमंडली छूट गई, अकेलेपन का एहसास कुछ दिनों तक रहा । बचपन जिस माटी पर लौटता है लड़कपन जिस धूल में खेलता है,वह माटी और उसकी गंध व्यक्तित्व में कुछ इस तरह रच-बस जाती है कि उससे अलग होना या भुला देना मुश्किल होता है । दूसरा अनुभव यह भी हुआ कि वक्त तकलीफ    का सबसे बड़ा मरहम है, महानगरों का एकाकीपन व अजनबीपन भी एकांतता एवं सजृन में सहायक होता है और कभी-कभी खुशी भी प्रदान करता है, क्योंकि मन हमेशा आजादी चाहता है । जीवन की आकस्मिक घटनाए ही वास्तव में जीवन को दिशा देती है  ।
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    मेरे मित्र ने मुझसे कहा - बेटी की बिदाई का दरद बहुत होता है जिसे सिफ उसके माता-पिता ही समझ सकते है । जब बेटी विवाह कर बिदा होती है तो उनका दिल भारी हो जाता है, आँखों से आँसू सूखते नहीं । जन्म से लेकर बिदाई तक का जीवन  चलचित्र की तरह सामने दिखाई देने लगता है । तुम नहीं समझ सकते ।  मैंने कहा-क्यों ? ऐसी क्या बात है । क्योंकि तुम्हारे तो बेटे ही बेटे है । मैंने कहा -बात कुछ जमी नही ।  एक बात और, लड़के तीन हो, पाँच हो या एक कोई फरक नही पड़ता  ।  मुझे तो बेटे-बेटी की बिदाई में कुछ फरक नजर नही आता । और ये तो अपना- अपना देखने  का दृष्टिकोण है,अपनी-अपनी सोच समझ है, बुद्घी है  । अरे, बेटी तो दूसरे के घर की अमानत है ही, उसे जन्म से ही पराया मानते है । कारण  कि ये तो विवाह करके दूसरे के घर जायगी ही और अपना अलग घर बसाएगी ही ।  जिसे हम जन्म से ही दूसरे की धरोहर के रुप में देखते है तो दिल के कोने में  एक परायेपन की बुनियाद के साथ ही  मकान की तामीर शुरु हो जाती है और बिदाई तक एक मजबूत इमारत बन कर तैयार हो जाती है ।  इसी कारण हिम्मत से हम उसे बिदा भी कर देते है । और यह भी  सच है कि बेटी की उम्र बढ़ने के साथ-साथ शादी में  दहेज देने के लिए आभूषण, कपड़े, सामान जुटाने की प्रक्रिया भी चिंता के साथ-साथ चलती रहती है  ।

    इसके विपरीत बेटे है, जिनके लिए मन में धारणा ही अलग है कि जो पराये घर नही जाएंगे, बहू लेकर आएंगे, सुख दुःख मेें  साथ रहेंगे, साथ रखेंगे, धीरे-धीरे परिवार बढ़ता ही जाएगा । ऐसी स्वगीय सुख की मीठी-मीठी कल्पनाओं,आकांक्षाओं में मन उड़ान भरने लगता है ।  कि अब बड़ी उमर में  चिंता की कोई  बात नहीं । अपने सौ दिन अच्छी तरह से पूरे हो जाएंगे ।  एक तरह की सुरक्षा का आवरण हृदय पर हमेशा चढ़ा रहता है, कि ,तेरा ख्याल जागेगा,सोया करेंगे हम । बेटी से तो जीवनभर साथ रहने की आशा नही कि जा सकती जबकि बेटो से अंत तक साथ रहने की उम्मीद पर ही माँ- बाप जिन्दा रहते है ।  और जब वो  ही बेटे, जाे अपने है, पराये नही, एक दिन तीन बड़े शहरों में अलग अलग अपना घर  बसा  लेते है,  उसकी पीड़ा शायद बेटी की बिदाई से ज्यादा ही होगी,  इस यक्ष प्रश्न का उत्तर  एक अनसुलझी पहेली या फिर उन बेटों के भुक्तभोगी माँ-बाप ही समझ सकते है, जिनके सुखद सपनों को कच्ची नींद में झकझोर कर तोड़ दिया गया हो  । बेटों की जुदाई की तड़पन एवं याद में आँखे जब तब अपने पलकों के प्यालें अश्कों से भर-भर कर गालों पर ढ़ोलते रहते है  । आशीरवाद सुनकर मेरी पत्नी हमेशा  खुश हो जाती थी,  लेकिन मैं आज तक समझ नहीं पाया कि चाची ने तीन गाँव तीन घर का वरदान दिया था या- -शाप ???    

     जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए, अब तुमने कितनी दूर ठिकाने बना लिए----
                                           
◊  ◊  ◊  ◊  ◊  ◊  ◊

हरिनारायण दीसावाल
मुंबई १८-९-२०१३  

Monday, September 26, 2011

Tera Tujko Arpan urf Vasiatnama : Part 3

     दुसरे नंबर पर जमीन - कट | नहीं है | मैं जीवन भर जमीन पर ही रहा | आसमान में नहीं उड़ा | उड़ने के सपने अवश्य देखे, लेकिन किस्मत ने पंख कुतरकर उन्हें साकार नहीं होने दिया | न तू जमीं के लिए है न आसमां के लिए , तेरा वजूद है सिर्फ दास्ताँ के लिए | इंसान का मन बड़ा विचित्र है | अभावों से असंतोष तो समझा जा सकता है, पर जिन सपनो को साकार करने के लिए, आदमी जीवनभर मरता-खपता रहता है, जब वे पुरे हो जाते है, तब भी वह उनसे संतुष्ट नहीं होता | किसी ने कहा है - "जिन्दगी जिससे इबारत हो, वो जीस्त कहाँ | यू तो कहने के तई  कहिए, कि हाँ , जीते है ||"
          तीसरे नंबर पर - केश/रकम | कहते है बच्चों को धन मत दो, अच्छी शिक्षा दो | वही किया, सब शिक्षा मे खर्च कर दिया | पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय | परिणाम उज्जवल रहा | बर्तन-भांडे , कपडे-लत्ते, लकड़ी-लोहे का सामान सब में बराबर-बराबर बाँट दिया गया है | 
      इस वसीयतनामे के द्वारा जो सोंप रहा हूँ भौतिक संपत्ति , इसमें नई बात कुछ भी नहीं है | ये परंपरा से चला आ रहा है | असली संपत्ति, मेरे वरिष्ठजनो ने उनके अनुभव, जीवन-मूल्य जो मुझे दिए है, वही विरासत में तुम्हे सोंप रहा हूँ | इस बात कि सदा सावधानी रखना कि कभी नीचा न देखना पड़े | ईमानदारी और मेहनत से पुरुषार्थ करना | शायद इसलीए अपने पूर्वजो का असीम आशीर्वाद और सुविधाए भाग्यवश प्राप्त हुई है | तुम्हे इनका जीवन में होशियारी से उपयोग करना है | परिवार के साथ ही, समाज और देश के प्रति भी दाइत्व निभाना है | मेरी परमपिता परमेश्वर से कर-बध्द प्रार्थना है कि तुम्हे जीवन में कभी विफलताओ का अनुभव करना ही नहीं पड़े |
     अब यह वसीयत लेख समाप्त कर रहा हूँ | इस क्षण तक तो मैं तुम्हारे साथ हूँ, पर अधिक समय तक तुम्हारा साथ न दे सकूँगा | हम सब, जब साथ साथ थे से अब तक मैंने तुम सबसे ह्रदय के तल से प्यार किया है, प्रेम दिया है, और तुमने भी जो प्रेम और सुख दिया है, उसकी पूर्ति में कभी नहीं कर सकता | जब तक इस संसार में रहूँगा , अंतिम क्षण तक तुम्हारे प्यार कि गर्माहट महसूस करता रहूँगा | अपनी माँ का ध्यान रखना | वह बहुत दयालु है | हमदोनो के बीच अगर कुछ लेनदेन हुआ है, तो वो सिर्फ प्रेम का हुआ है, बस | जिस व्यक्ति ने हमेशा भावना के स्थान पर विवेक को महत्व दिया हो, वह अंतिम समय में विवेक से दूर रहकर भावना में कैसे बह सकता है | विशेषरूप से जबकि, मौत ह्रदय के द्वार पर खड़ी है | मेरे बाद दुखी मत होना | यदि मन कभी उदास हो, कोई निराशा महसूस हो तो मुझे याद कर लेना | मैं जहाँ भी रहूँगा, तुम्हे देखूंगा और पुन: आत्मविश्वास के साथ, तुम्हे मुस्कराते हुए खड़े होने के लिए प्रेरित करूँगा | 
     अंत में, यह वसीयतनामा अपनी समस्त चल-अचल संपत्ति के सम्बन्ध में, राजी-ख़ुशी से, स्वेच्छा से,बिना किसी मादक द्रव्य का सेवन किए, किसी दबाव व लालच के बिना, लिख दिया व गवाहों के समक्ष हस्ताक्षर कर दिया ताकि सनद रहे व वक़्त-जरुरत काम आवे |  इति ||  

Saturday, September 24, 2011

Tera Tujko Arpan urf Vasiatnama : Part 2

          ढ़ेर सारी दवाईयाँ जिन्दगी भर मुझे लेनी है, अपने बी.पी. को काबू में रखना है,परहेज से रहना है,नमक,घी,तेल, आदि बहुत सी मनपसंद चीजें नहीं खाना है और बेकार की ,बिनास्वाद  का भोजन करना है अब क्या होगा ? इस घटते क्रम के साथ, सोचा संतुलित जीवन जीना होगा. प्राप्त अनुभव ,अध्ययन -चिंतन-मनन-पर्यटन से प्रेम मोहब्बत के आदान-प्रदान  के आधार पर शेष आयु काटनी कठिन नहीं होगी. वर्षो से रुकी-छुपी-दबी तमन्नाओ को पूरा करने का अब वक़्त आ गया है. साथ ही अपने से बड़े बुजुर्गो की और भी देखूं, उनसे प्रेरणा लू , की वे जीवन से कैसे संघर्ष कर रहे है. कंधे से कन्धा मिलाकर चल रहे है. अपने जीवन के उत्तरार्ध की राह खुद बनानी है और खिलखिलाते हुवे जग छोड़ना है. पचास के बाद को वानप्रस्थाश्रम कहते है, वन को जाना . निश्चय किया की बाबाजी बनके जंगल/हिमालय तो नहीं जाऊंगा, परन्तु साधू जैसी मनस्तिथि में जीऊंगा. अपनी लगन से, धुन से, इस जीवन से अंतिम समय तक लड़ता रहूँगा. देखते है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है

     हाँ, तो अब असली मुद्दे पर-------वसीयत लिखना---

     यह की मेरी समस्त चल-अचल संपत्ति, जमीन-जयदाद, घर-मकान, केश,रकम,सारा सामान [ जिसका पूर्ण विवरण सलग्न सूची  में दिया गया है जो इस वसीअतनामे का अभिन्न अंग है ] का ठीक-ठीक बंटवारा कर देना चाहिए ,जिससे उतराधिकारियो में कोर्ट-कचेरी की नौबत नहीं आए .   

     सबसे पहले मकान को ले. एक ही मकान है- पुश्तैनी . सात-बाश्शा की गली के मुहाने से खजुरवाली मस्जिद के बीच मुख्य सड़क पर. मकान एक मंजला आगे , दो-पाट की दोड़ का पक्का, बीच में खुला बाड़ा,पीछे गली की तरफ मिट्टी का कच्चा बना है. सच्ची बात तो यह है की, यह मकान मैंने नहीं ख़रीदा - मुझे फ्री में पिताजी से वसीयत में मिला है. इसलिए मेरा कहना ठीक नहीं होगा. यह अवश्य है की इसमें मेरा जन्म हुआ, बड़ा हुआ , शादी हुई, बच्चे हुए और क़ानूनी रूप से सरकारी दस्तावेजो में मालिक हूँ .
     सच तो यह है की इसका मैंने सराय की तरह उपयोग किया है . रहा और छोड़ा . गीता में भी कृष्ण ने कहा है- "तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया ? तुमने जो लिया , यही से लिया . जो दिया यही पर दिया. जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का हो जायगा. परिवर्तन संसार का नियम है. " मतलब तेरा तुजको अर्पण. अब बच्चों को सोंप रहा हूँ, वे ही मालिक है. जैसे चाहे रहे. दिली इच्छा है, जब भी रहे साथ-साथ एक चूल्हे के रहे. तीनो के इनिशिअल से राम बनता है.
     अपना क्या है ? बच्चों के साथ रहने का भी आनंद उठाओ. सोचता हूँ, शायद,यही तरीका, सही तरीका है जीवन बिताने का , आज यहाँ तो कल वहां . बस घूमते रहो जब तक हाथ-पैर साथ देते है. दुनिया देखो किसी भी जगह टिको नहीं. दिन रात, चाँद सूरज की तरह एक दुसरे का पीछा करते हुवे धरती का चक्कर लगाते रहो. 
                                                                                                            क्रमश: पार्ट-3

Friday, September 23, 2011

Tera Tujko Arpan urf Vasiatnama : Part 1

      मैं यह वसीयतनामा लिखनेवाला, नाम अमुक, वल्द अमुक, जाति अमुक, निवासी खजुरवाली मस्जिद के पास, शहर उज्जैन का रहनेवाला हूँ | उम्र ५० साल [ पूरे पच्चास, उम्र के आंकड़े से तो अभी वसीयत लिखने का वक़्त नहीं आया हैं , फिर भी ] एक तरह से जीवन पाकर हम प्रतिक्षण बढते या घटते रहते है| बढते-बढते पचास के हो गए, यानि पचास वर्ष जी लिए और पचास वर्ष आयु के कम हो गए | [100 - 50=50 ] " जितनी बढती है, उतनी घटती है, उम्र अपने आप कटती है  |" 

           रोज शाम उम्र मेसे कटकर, एक दिन गिर जाता है , 
           और, आदमी है, की उस कटे हुए दिन को जोड़कर , 
           अपनी बड़ी हुई उम्र बताता है |  

       दिन प्रतिदिन उम्र कभी हंसकर - रोकर, कभी खुश - उदास होकर, कभी मस्ती मे बह कर, कभी पस्ती मे घिसटकर, कभी श्रम-संघर्ष मे डटकर, और कभी अपने मे सिमटकर काटनी पड़ी है | अगर सौ वर्ष जीना माने [ कौन जीता है ? ] तो 1 से  50  तक बढने का क्रम था, अब , माय नस 50 से  1  [यानि 51  से 100 ] घटने का क्रम शुरू होता है | सोचता हूँ बढते हुए क्रम के साथ बढता हुआ बल था, पौरुष था, अदम्य साहस था, हसरते थी, कुछ कर गुजरने का जज्बा था | पर अब घटते क्रम की शुरुवात मे वसीयत लिखना है,  ये क्यों हुआ, इसका कारण है, वही बताता हूँ |

          एक दिन बैचेनी और घबराहट होने लगी | शरीर गर्म हो गया | डॉक्टर से चेकअप करवाने से पता चला के मुझे दिल का रोग है  [ ये रोग उन्हें ही होता है, जिनके पास दिल होता है ] साथ ही हाई ब्लड -प्रेशर याने उच्च रक्तचाप भी है [ इसका मतलब, खून खौलना और उच्च स्तर पर पहुचना भी वीरता का एक गुण माना जाता है ] |

          सब घबराये कि मुझे गंभीर बीमारी है, और कभी भी धड़कन बंद हो सकती है, यानि राम नाम सत | सच्चे मित्रो ने सलाह दी कि अब मुझे वसीयत लिख देना चाहिए | यह पक्की बात है कि जीवन का उल्लास वही खत्म हो जाता है, जहाँ आदमी अपने जीवन के बारे में ज्यादा सोचने लग जाता है | सोचा, जब होनी स्वीकार ही करना पड़ रही है तो विवशता से स्वीकार करने से अच्छा है कि हिम्मत के साथ स्वीकार की जाये | क्योंकि कुछ बातें न पूछने की होती है , न बताने की होती है, सिर्फ समझने की होती है और समझ कर चुप रहने की होती है |  
                                                                                                             क्रमश......पार्ट-२ 


Saturday, May 21, 2011

जीना यहाँ मरना यहाँ

     च आय - -अम्मी , चाय |
     रात के सन्नाटे को चीरती हुई मध्धिम सी बारीक आवाज , सास जीवन बाई के कानो से टकराई जो अपनी बहु के बिस्तर के पास दीवार से टिककर उसके पैर दबाते-दबाते जाने कब नींद की आगोश मे समां गई थी |

(२)     ' अभी बना कर लाई ' कह कर उठते हुए एक उडती सी नजर दीवार घडी पर डाली, रात के तीन बजे थे | पास ही तीनो पोते-पोतिया अस्त व्यस्त से एक दुसरे मे उलझे हुए सो रहे थे | पिछले एक साल से बड़ी बहु बिस्तर पर थी और जीवन की यह दिनचर्या बन गई थी | सोने, जागने ,खाने-पिने , का क्रम सब गड़बड़ा गया था | हर समय एक ही चिंता लगी रहती थी की, क्या होगा ? एक अज्ञात अनिष्ट की आशंका से भय लगता था | बेटे का स्वभाव से सरल होना, पारिवारिक एवं सामाजिक तथा भविष्य की पेचीदगियो से अनभिज्ञ, अपनी दुकान में व्यस्त |
' ले, उठ, चाय पी ले, बहु को उठाते हुए जीवन बोली | गर्दन के पीछे हाथ लगा कर, सहारे से धीरे से उठाते हुवे, होटो से कप लगा चाय पिला कर धीरे से सुला दिया | बहु को सोती देख और एक नजर बच्चो पर डाल दीवार के सहारे पीठ टिका कर बैठ गई और विचारो ने उसे १३ साल पीछे धकेल दिया | उसे याद आया अपनी बहन का वाक्य -" अरे, सोचती क्या है, लड़की हीरा है, हीरा | तेरे राजेंद्र के लिए, बड़ी सुन्दर जोड़ी जमेगी | ऐसे अच्छे परिवार की लड़की पूरी जात में ढूंढे से नहीं मिलेगी | वास्तव मे लड़की हीरा थी | गोर वर्ण, तीखे नैन, ख़ूबसूरत नाक-नक्ष, कद-काठी, पड़ी लिखी और व्यवहार मे उत्तम | शादी हो गई | देखने वाले राधा-कृष्ण की जोड़ी कहते नहीं अघाते | समय और संसार अपनी गति से चलता रहा और देखते-ही-देखते तीन बच्चे हो गए |

(३)      बहु को हल्का सा बुखार आया, ठीक नहीं हुआ, कमजोरी गई | कसबे के डाक्टर ने पास के बड़े शहर में किसी विशेषज्ञ से जाँच कराने की सलाह दी | जाँच में डाक्टर ने बताया शायद कैंसर है, सार्कोमा | सभी अवाक रह गए | इतनी कम उम्र मे, अभी तो जिन्दगी के सिर्फ तीस बसंत ही देखे है, बच्चे भी छोटे है | बम्बई ले गए इलाज के लिए | पुरे पंद्रह दिन रखा, टाटा अस्पताल मे सिर्फ जाँच, जाँच, और जाँच | पैसा पानी की तरह बहा | डाक्टर ने दवाई लिख दी, कहा घर ले जाओ,यहाँ रखने से मतलब नहीं |

(४)        तब से, एक साल हो गया, बिस्तर पर पड़ी है | पुरे बदन में दर्द रहता है | दिन भर हाथ-पैर दबाते-दबाते मेरे हाथ दुखने लगे | आज तीन बार नहाना हो गया | अब तो पेशाब\पाखाना सभी बिस्तर पर | दोनो पैर रह गए, उठा भी नहीं जाता, करवट भी बदली नहीं जाती | सोये रहने से पीठ पर घाव हो गए जिनमे मवाद भर गया | कब बिस्तर गीला हो गया पता ही नहीं चलता | वो तो पैर दबाते समय कही उंगलिया गीली हो जाय या फिर थोड़ी-थोड़ी देर मे देखते रहो | कपडे बदलो, फिर नहाओ | बस, यही दिनचर्या हो गई है, अब तो सपने मे भी बहू ही दिखती है |एक दिन मुझसे कहा , की मेरा तो पूजा-पाठ मंदिर देवदर्शन सब बंद हो गए | रिश्तेदारी मे शादी-समारोह, तीज-त्यौहार और किसी के घर भी जाना अच्छा नहीं लगता | घर मे ही कैद हो गई हूँ | मैंने, वातावरण को हल्का बनाते हुए दार्शनिक अंदाज मे कहा, शायद पिछले जनम मे ये आपकी सास रही होगी और आप बहू, और जो सेवा अधूरी रह गई होगी उसे अब इस जनम मे पूरी करवा रही है |

(५) भाभी मेरे लिए चाय बनाने की कह कर किचन मे चली गई | मैं, खयालो मे खो गया, जीवन नाम किसी पुरुष का होना तो सुना है, लेकिन महिला का नाम ,और वो भी जीवन, बहुत कम देखने सुनने मे आया | पता नहीं क्या सोच कर माता-पिता ने जीवन नाम रखा, जबकि उनके सभी भाई-बहनो के नाम तो भगवान् के नामो पर रखे| सिर्फ भाभी का नाम ही जीवन क्यो रखा ? मेरा पूरा बचपन गुजर गया उन के  साथ रहते हुए, यह सोच सोच कर | कहते हैं उम्र बढने के साथ साथ अनुभव भी  बढता है | आज पुरानी यादो के झरोखो मे झांक कर   देखता हूँ तो मालूम होता है की उनके माता-पिता ने चाहे अनजाने मे या लाड़ से यह नाम रखा हो, लेकिन आज उन्होने बहु  को अपना  जीवन देकर अपना नाम सार्थक कर दिया |

(६)    अब बेटे ने  रेल पास बनवा लिया है | अक्सर ही पास के  बड़े शहर  की मण्डी मैं दुकान का सामान लेने जाना पड़ता है |घर मैं पत्नी का कराहना, दर्द, परेशानी देखि नहीं जाती | घर मैं खाना भाता नहीं इसलिए टिफिन साथ लेकर रेल   मे ही खाना खाता है| एक ही ख्याल आता है, क्या होगा भविष्य ? रेलगाड़ी एक झटके के साथ रुक गई और विचारों की तन्द्रा टूट गई | खिड़की के बाहर नजर डाली , देखा उज्जैन के बाद पहला ही स्टेशन है विक्रमनगर | और निगाहे लोहे के पाईप बनाने के एक बंद कारखाने के टीनशेड पर, जंग लगते हुए ढांचे पर पड़ी | मैदान मे ऊँची-ऊँची घास उग आई थी | सोचा जब इसमें मेरे काका काम करते थे तब कैसी चहल-पहल रहती थी | रेल इंजन की शंटिंग, मजदूरों का शोरगुल , मशीनों की आवाजे और थर्राहट , चिमनी से उठता हुआ धुंवा | और आज एकदम सन्नाटा - वीरानी | शायद इस फैक्ट्री और मेरी तक़दीर मैं कुछ साम्य है|  तभी सिटी की एक तेज चीख के साथ रेल चल पड़ी और बेटा मण्डी के भावो के उतार-चड़ाव मे खो गया |
(७)    बहू का देवलोकगमन हो गया | आज तेरहवी है ,घर मैं भीड़ है, ब्रह्मभोज है | और कमरे मे, मैं उसी जगह पर बैठा हूँ , जहाँ वह दो बरसों से लेटी हुई थी बिना हिले-डुले बिलकुल पिरामिड की ममी की तरह कपडे मे लिपटी हुई |पूरा परिद्रश्य किसी चलचित्र की मानिंद दिखाई देने लगा | सोचा नियति भी क्या रंग दिखाती है | वाकई ये जीवन एक रंगमंच है, पर्दा गिरता है, पर्दा उठता है, रौशनी होती है, एक द्रश्य मंच  पर आँखों के सामने प्रस्तुत होता है, कुछ समय चलता है, पात्र रहता है| तभी रौशनी मंद हुई, हल्का अँधेरा छाया और कुछ देर बाद उजाले मे दूसरा द्रश्य , दूसरा पात्र आता है, अलग रंग की रौशनी मे, अलग वेशभूषा मे, अलग संवादों के साथ |  सोचता हूँ ये नाटक नहीं सर्कस है | एक गीत के अनुसार - हाँ बाबु ये सर्कस है, और इस सर्कस मे छोटे को भी, बड़े को भी, अच्छे को भी, बुरे को भी, खरे को भी, खोटे को भी, नीचे से ऊपर को, ऊपर से नीचे को आनाजाना पड़ता है-  और रिंग मास्टर के कोड़े को .............बस रुको | यही आकर चित्त भ्रमित हो जाता है | क्या चाहता है ये ऊँचे आसमान मे बैठा रिंग मास्टर ? क्यों  मौत के कोड़े से ही ठीक करना चाहता है ?  उनको जिनके अभी खेलने-खाने के दिन थे, खिलखिलाने और गुनगुनाने के दिन थे | न मैं समझ पाया, न जीवन और न ही बेटा, और न ही शायद बहु जो अनचाहे ही उस रिंग मास्टर के पास पहुँच गई  |
(8)    जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ ? ? ?

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